नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जबसे भारत में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) के लिए सार्वजनिक रूप से वकालत की है, तब से इस बात की जोरदार चर्चा है कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव को 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले लागू कर सकती है. हालांकि, विपक्षी दलों ने इसे मुस्लिमों को उकसाने वाला मुद्दा बताया है। हिंदूवादी समूहों और कुछ अन्य धर्मों के लोगों ने भी UCC पर चिंता जाहिर की है। उन्हें डर है कि UCC आने से उनके अधिकार भी कम हो जाएंगे। यूसीसी वर्षों से भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का प्रमुख मुद्दा रहा है.हालांकि इसे अखिल भारतीय कानून बनने से पहले संसद का टेस्ट पास करना होगा.
PM मोदी ने मंगलवार को बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कही यह बात
एक ही परिवार में दो लोगों के अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है। सुप्रीम कोर्ट डंडा मारता है। कहता है कॉमन सिविल कोड यानी UCC लाओ, लेकिन ये वोट बैंक के भूखे लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं। बीजेपी सबका साथ, सबका विकास की भावना से काम कर रही है।’

आदिवासी संगठनों ने बीजेपी के लिए खड़ी की मुस्किले
आदिवासियों और पूर्वोत्तर के लोगों के विरोध ने बीजेपी की एक देश-एक विधान के नारों की मुश्किलें खड़ी कर दी है. झारखंड के 30 आदिवासी संगठनों ने बयान जारी कर कहा है कि विधि आयोग से इसे वापस लेने के लिए कहेंगे. आदिवासियों नेताओं का कहना है कि समान नागरिक संहिता अगर लागू होती है, तो इससे उनकी प्रथागत परंपराएं खत्म हो जाएगी. साथ ही जमीन से जुड़े छोटानगपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट पर भी इसका असर होगा. आदिवासी संगठनों के विरोध पर बीजेपी के बड़े नेताओं ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर आदिवासी समाज इसका विरोध करता है, तो बीजेपी को नफा से ज्यादा सियासी नुकसान हो सकता है.
नागरिक संहिता के विरोध में आदिवासी, क्यों?
1. शादी, बच्चा गोद लेना, दहेज आदि प्रथागत परंपराओं पर असर होगा. आदिवासी समाज पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता है.
2. आदिवासी समाज में महिलाओं को संपत्ति का सामान अधिकार नहीं है. इसे लागू होने से यह पूरी तरह खत्म हो जाएगा.
3. आदिवासियों को ग्राम स्तर पर पेसा अधिनियम के तहत कई अधिकार मिले हैं, जो नागरिक संहिता लागू होने से खत्म हो सकता है.
4. जल, जंगल और जमीन सुरक्षित रखने के लिए आदिवासियों को सीएनटी और एसपीटी एक्ट के तहत विशेष अधिकार मिले हैं.
सियासी तौर पर आदिवासी कितने मजबूत
भारत में 10 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं, जिनके लिए लोकसभा की 47 सीटें आरक्षित की गई है. मध्य प्रदेश में 6, ओडिशा-झारखंड में 5-5, छत्तीसगढ़-गुजरात और महाराष्ट्र में 4-4, राजस्थान में 3, कर्नाटक-आंध्र और मेघालय में 2-2, जबकि त्रिपुरा में लोकसभा की एक सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है. लोकसभा की कुल सीटों का यह करीब 9 प्रतिशत है, जो गठबंधन पॉलिटिक्स के लिहाज से काफी अहम भी है. आरक्षित सीटों के अलावा मध्य प्रदेश की 3, ओडिशा की 2 और झारखंड की 5 सीटों का समीकरण ही आदिवासी ही तय करते हैं. साथ ही करीब 15 लोकसभा सीटों पर आदिवासी समुदाय की आबादी 10-20 प्रतिशत के आसपास है, जो जीत-हार में अहम भूमिका निभाती है. कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकसभा की करीब 70 सीटों का गुणा-गणित आदिवासी ही सेट करते हैं.
आदिवासियों का विरोध सियासी नुकसान पहुंचा सकता है
आदिवासी नेता लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं- आदिवासियों के बीच पलायन का मुद्दा सबसे बड़ा है और 2014 में बीजेपी ने इसे खत्म करने की बात कही थी, लेकिन मूल मुद्दा छोड़ नागरिक संहिता की बात कर रही है. हमारे पास जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए कुछ विशेष कानून हैं. अगर वो भी छीन जाएंगे तो क्या करेंगे. मुंडा आगे कहते हैं- सरकार की मंशा सही नहीं है और एक विशेष एजेंडा के तहत इसे लागू किया जा रहा है. 5 जुलाई को झारखंड के आदिवासी समुदाय राजभवन के सामने धरना पर बैठेंगे.